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उत्तराखंड के माथे पर किसने लगाया ये बदनुमा दाग? हल्द्वानी हिंसा के बाद उठे कई सवाल – myuttarakhandnews.com

Latest posts by Sapna Rani (see all)हल्द्वानी। हल्द्वानी की हिंसक तस्वीरें और वीडियो गुरुवार रात होते-होते देश के कोने-कोने में पहुंच गए थे। ये तस्वीरें थीं अतिक्रमण की जमीन पर बना मदरसा तोड़ने पुलिस-प्रशासन के पहरे में गई नगर निगम की टीम और इसका विरोध कर रही बेकाबू भीड़ के उपद्रव की। रात करीब दो बजे हमारे अखबार में मौतों का आंकड़ा छह लिखने के साथ ही ये उत्तराखंड की सबसे बड़ी हिंसक घटना बन चुकी थी। इस दौरान सौ से ज्यादा वाहन भी फूंके जा चुके थे और 300 से ज्यादा जख्मी लोग अस्पताल पहुंचे थे।प्रशासन को कर्फ्यू लगाना पड़ा और दंगाइयों को देखते ही गोली मारने के आदेश दिए। इससे पहले ऐसी हिंसा 2011 में रुद्रपुर में हुई थी जब वहां सांप्रदायिक दंगे में चार लोगों की मौत हो गई थी। हल्द्वानी में हिंसा की पटकथा 29 जनवरी से लिखी जा रही थी। जब शहर में अतिक्रमण तोड़ते हुए नगर निगम की टीम वनभूलपुरा पहुंचती है। वही वनभूलपुरा है, जो बीते साल रेलवे की जमीन पर अतिक्रमण हटाने के विवाद पर राष्ट्रीय परिदृश्य में आया था। लेकिन इस बार जगह वही है लेकिन विवाद नया।बकौल प्रशासन मलिक का बगीचा में सरकारी जमीन पर मदरसा बनाकर एक व्यक्ति ने कब्जा किया है। उसे एक फरवरी को अतिक्रमण स्वयं हटाने की चेतावनी दी गई। फिर पांच फरवरी तक स्वयं अतिक्रमण तोड़ने की चेतावनी दी। लेकिन चार फरवरी की शाम मदरसे के पक्ष में सैकड़ों महिलाएं और बच्चे सड़क पर उतर आए। चार फरवरी की रात ही इस क्षेत्र को सील कर दिया और मामला शांत हो गया। दूसरा पक्ष मामले को लेकर हाईकोर्ट पहुंचा।लेकिन बीते गुरुवार को दोपहर बाद करीब सवा तीन बजे पुलिस प्रशासन फिर मलिक का बगीचा में जमा होने लगता है और पांच बजे जेसीबी मदरसा ढहाने के लिए आगे बढ़ती है। पुलिस में सेवा दे चुके लोग बताते हैं तीन से पांच बजे के बीच के यही वह दो घंटे हैं जहां पुलिस प्रशासन से बड़ी चूक हुई।सैकड़ों की भीड़ और बैरिकेडिंग के आगे महज पांच-छह पुलिस जवान खड़ा करना भीड़ के मंसूबे को भांपने में भारी चूक बता रहा है। बैरिकेडिंग को धराशायी कर भीड़ करीब सवा पांच बजे जेसीबी के सामने आ गई। भीड़ को हटाने के लिए पुलिस बल प्रयोग करती, इससे पहले सामने से पथराव शुरू हो गया।17 गलियों में बंटे इस क्षेत्र में हर तरफ से पत्थरों की बरसात से खुफिया तंत्र की पोल खुल जाती है। अब लोग चर्चा कर रहे हैं कि अतिक्रमणकारियों पर मुकदमे और कार्रवाई बेहद जरूरी है लेकिन उन लोगों को भी नहीं बख्शा जाना चाहिए जो एक झोपड़ी से शुरू हुए अतिक्रमण को बस्ती बसने तक का मौका देते हैं।चिह्नित वे नेता भी होने चाहिए जो इनके वोटर कार्ड बनाते हैं। ऐसे अफसरों को भी सजा मिलनी चाहिए जो इन्हें बिजली-पानी के कनेक्शन देते हैं। इनके लिए अतिक्रमण की जमीन पर ही अस्पताल आदि बनवाते हैं। लोगों का मानना है कि यदि वोट और नोट के खातिर अतिक्रमण के कोढ़ को बढ़ाने वालों पर शिकंजा नहीं कसा गया तो कभी कुली-बेगार, नशा नहीं रोजगार दो और चिपको जैसे आंदोलनों के लिए पहचान रखने वाला ये प्रदेश अतिक्रमण, दंगे और आतंक के लिए पहचाना जाने लगेगा।जबकि उत्तराखंड ने कभी दंगे-फसाद को अपने यहां जगह नहीं दी है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो का आंकड़ा भी बताता है कि 1996 में देहरादून और 2011 में रुद्रपुर में हुए दंगों के अलावा उत्तराखंड के माथे पर दूसरा ऐसा कोई कलंक नहीं है। दुर्भाग्य की बात है कि दंगे में मरने वालों की गितनी अलग राज्य में शुरू होती है।अन्यथा स्वतंत्रता आंदोलन से राज्य आंदोलन तक बेदाग लड़ाई लड़ने वालों के रूप में उत्तराखंड की पहचान है। उत्तराखंड की पहचान आपस में लड़ने वालों की कभी नहीं रही। यहां तो देश के लिए लड़ने वाले रहते हैं। यही वजह है कि इस छोटे से राज्य ने कुमाऊं और गढ़वाल जैसी दो-दो जांबाज रेजिमेंट देश को दी हैं।